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#1 दकार्गल (The Secret Knowledge of Vedas & Astrology) Dakargal (जलानुसन्धान में ज्योतिष का दूरबीन)
ज्योतिष विज्ञान की एक विशेष कड़ी-दकार्गल
ज्योतिष विज्ञान की इस कड़ी में हमने फिर से आपके लिये एक और रिसर्च किया और खोज लाये एक और मणि, ज्ञान और विज्ञान के उस खजाने से जिसकी तलाश सभी जिज्ञासुओं को रहती है।दकार्गल शब्द अपने आप में ही एक रोचकता लिये हुए है। यह शब्द पानी से सम्बन्धित है। कोई अगर विज्ञान की कसौटी पर इसकी जाँच करना चाहे तो इसकी जाँच वह बिल्कुल कर सकता है। लेकिन इस आर्टिकल को शुरू करने के पहले ही आपको बता दूँ सूर्य को दीपक जला कर खोजा नहीं जाता और यह बात दकार्गल के लिये भी स्वयंसिद्ध है।
आधुनिक युग (Modern Time) में जल प्राप्ति
मैं हमेशा ही बचपन से कुएं से खींचकर पानी पीता था और सिलीगुड़ी में उस समय जब मैं छोटा था लगभग 8 या 9 साल का पानी बाल्टी से खींचकर और तब उसक यूज़ करता था | वह साल था 1993 और आज 2024 में सभी फिल्टर्ड पानी पीते हैं | भारत के बहुत से गाँव में आज भी कुएं, नदी, हाथ के नल का पानी पिया जाता है | जब मैं फ़िल्टर का पानी लेने जाता हूँ तब मुझे बड़ा ही आश्चर्य होता है कि फ़िल्टर वाली मशीन से एक और तो शुद्ध पानी निकाल कर बेचा जा रहा है लेकिन दूसरी ओर जितनी देर फिल्ट्रेशन प्रक्रिया होती है बहुत सारा पानी मशीन नाली में भी बहा देती है |
वैदिक युग (Vedic Time) में जल प्राप्ति
प्राचीन भारत और वैदिक काल या ज्योतिष ग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि हमारे ऋषि परंपरा में कैसे पानी की खोज एक खास प्रक्रिया से विषम परिस्थितियों में की जाती थी और उसको विभिन्न जड़ी-बूटियों से शुद्ध किया जाता था | पानी को जगह-जगह खोजने और प्राप्त करने के बहुत से तरीके बताए गए हैं | अगर आप थोडा भी विचार कर सकते हैं तो आपको आश्चर्य ही नहीं होगा बल्कि हमारे ऋषि परम्परा और भारत के सनातन विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान पर पूरा गर्व होगा |
जीवन बनाम जल (Life VS Water)
जल अथवा पानी आदिकाल से ही सभी जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों के जीवन के लिये तो महत्वपूर्ण है ही, खेती, उद्योग और विभिन्न प्रकार के बिजनेस कार्य के लिये भी इसकी महत्ता बढ़ जाती है। जीवन का दूसरा नाम पानी भी है क्योंकि इसके बिना धरती पर जीवन कि कल्पना करना तो दूर हैं जीवन के एक किसी कोशिका में कोई छोटी सी हलचल भी न हो |
ऋग्वेद क्या कहता है?(Water in Rigveda)
अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये। देवा भवत वाजिनः॥
ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 23 मन्त्र 19 में यह मंत्र कहा गया है जिसका अर्थ है कि हे मनुष्यो तुम अमृतरूपी रस वा ओषधिवाले जलों से शिल्प और वैद्यकशास्त्र की विद्या से उनके गुणों को जानकर कार्य की सिद्धि अथवा सब रोगों की निवृत्ति नित्य करो।
पीने का पानी कितना है? (Quantity of Drinkable Water on The Earth)
आपको आश्चर्य होगा कि मीठा पानी अथवा पीने लायक पानी धरती पर केवल 2.5 प्रतिशत ही है जबकि उसका यूज पूरी दुनिया में लगभग 8 बिलियन टन एक माह में किया जाता है। और आपका आश्चर्य यह जानकर और बढ़ जायेगा कि विकाससील देशों के पास पीने के लिये पानी की समुचित व्यवस्था नहीं है अथवा न के बराबर है लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश इसको एक दिन में 3.9 ट्रिलियन पानी का उपयोग प्रति माह करता है।
पानी की कमी होने वाली है?(Water till 2030)
इसके आलावा चिन्ता की बात यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2025-2030 तक विश्व के 50 देशों को पानी की कमी का सामना करना पड़ सकता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार की मशीनों और रसायनों के प्रयोग से धरती पर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती ही जा रही है जिससे पानी की समस्या के बढ़ने और पानी के न होने अथवा पीने के पानी की कमी होने की कल्पना करके ही दिल दहल जाता है।
पानी का महत्व(Importance of Water)
वेदों के समय के जल के इस प्रकार के महत्व से ही उस वैदिक सभ्यता और वैदिक विज्ञान के साथ उससे निकले अन्य ज्ञान के साधनों और उस ज्ञान को साधने वाले लोगों की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि का ज्ञान स्वाभाविक रूप और बिना किसी प्रयत्न के ही हो जाना चाहिये।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ,क्योंकि वैदिक युग में जल में अशुद्धता तथा जनसंख्या की बेतहाशा वृद्धि, जल के दोहन, कृषि कार्य तथा अन्य औद्योगिक कार्यों में जल के नष्ट किये जाने सम्बन्धी भी समस्या नहीं रही होगी अथवा न के बराबर ही रही होगी। परन्तु वैदिक काल में और वेदों में ही जल सम्बन्धित अनेकों मन्त्रों हैं जो कि जल से प्रार्थना में लिखे गये हैं और उसको अमृत तुल्य बताया गया है|
उन मंत्रो से पता चलता है कि हमारे ऋषियों को यह बात अवश्य मालूम थी कि यह एक अमूल्य वस्तु है इसलिए इसका संरक्षण करने के लिए इसको अमूल्य बनाने के लिए इसको देवता से जोड़ देने पर सामान्य जनमानस इसकी रक्षा स्वतः करेंगे |
पानी के महत्व के विषय में ज्यादा बताने की जरूरत शायद किसी को नहीं है यह सर्वसिद्ध बात है कि पानी न हो तो जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। ज्योतिष विज्ञान पानी के साथ होने वाली भविष्य की इस समस्या से अनभिज्ञ नहीं रहा है। वेदों और ज्योतिष विज्ञान में इस पानी के अनुसन्धान और पानी के उपयोग के विषय में भी विस्तार से तो बताया ही गया है उसको एक गम्भीर विषय समझकर भी बताया गया है। ज्योतिष विज्ञान मेें इस विषय को दकार्गल नाम से सम्बोधित किया गया है। आज इस आर्टिकल में हम दकार्गल के विषय में विस्तार से जानने की कोशिश करेंगे।
दकार्गल (Dakargal)
पानी का महत्व सृष्टि के आदि काल से ही है| इसलिए पानी की खोज का काम भी उसी समय से जारी है| मनुष्य चाहे खूब पैसा कमा ले या AI बना ले | बिना पानी के वह रह नहीं सकता | और पानी की खोज में एक कड़ी है दकार्गल | कृषि क्षेत्र और पीने के पानी के आलावा दुनिया भर में तमाम बिजनस हैं जिनमे पानी का भरपूर या उससे भी कहीं ज्यादा यूज़ होता है|
दकार्गल का अर्थ (Meaning of Dakargal)
दकार्गल शब्द का अर्थ है पृथ्वी के भीतर इसकी कोख से या इसके सतह के नीचे से बाधाओं को हटाना और आसानी से पानी को प्राप्त करना| दकार्गल से वैदिक युग में जल के स्रोत और विशेषकर धरती के सतह के नीचे के जल के स्रोतों का पता लगाया जाता था और फिर जल प्राप्त कर उसको शुद्ध कर उपयोग में लाया जाता था | जिस प्रकार मानव जीवन में रक्त के बहाव के लिये, उसके संचार के लिये नसें और नाड़ियाँ होती हैं ठीक उसी प्रकार से धरती के अन्दर भी ऊँची-नीची अनेक प्रकार की जल की धाराएँ और जल की शिराएँ होती हैं जिनके द्वारा जल प्रवाहित होता रहता है।यह तो सबको पता है कि आकाश से वर्षा के रूप में गिरा हुआ जल ही जमीन के अन्दर रिस कर चला जाता है। और वही जल किसी न किसी रूप में वहाँ खोजने पर मिल भी सकता है।
दकार्गल की आवश्यकता(Why Dakargal)
आज आपको प्यास लगती है तो आप क्या करते हैं? पानी लेते हैं और पीते हैं या अगर बाहर हैं तो पानी खरीदकर पी लेते हैं| लेकिन वैदिक काल में ऐसा नहीं था और वैदिककाल तो बहुत लम्बे समय पुराणी बात है आज से लगभग दस साल पहले हम पानी नल या कुएं से, नदी से, झरने से पी लेते थे | लेकिन जब ये भी न हो तब ऐसी स्थिति में हम कहाँ जायेंगे? और ऐसी ही विषम परिस्थियों में दकार्गल काम आता था और जल के स्रोत का पता लगा कर ऋषि और मनीषी इस विद्या के द्वारा जल का अनुसन्धान कर जल प्राप्त कर जीवन की रक्षा कर सकते थे | और केवल ऋषि ही नहीं यदि आज आप भी इसके द्वारा जल प्राप्त करना चाहें तो प्राप्त कर सकते हैं |
दकार्गल में प्राप्त जल का स्वाद(Taste of Water)
अलग-अलग जगहों पर वर्षा के जल का स्वाद एक जैसा ही रहता है। अलग-अलग जगहों पर इसी एक ही जल का स्वाद भी अलग-अलग हो सकता है। वर्षा में जल वाष्पीकृत होकर नेचुरली फ़िल्टर के पानी से भी ज्यादा शुद्ध हो जाता है| लेकिन जब वह धरती पर गिरता है और अलग-अलग प्रकार की मिट्टी से मिलता है और जमीन के सतह की नीचे रिस कर चला जाता है तो मिट्टी में अलग-अलग प्रकार के रसायन,तत्व आदि के कारण उसक भी स्वाद और रंग अलग-अलग प्रकार का हो सकता है | दकार्गल में इसको शुद्ध करने के उपाय भी बताए गए हैं |
वर्षा के पानी को फ़िल्टर से ज्यादा शुद्ध तभी मान सकते हैं यदि वायु प्रदूषित न हो और वायु में जल से क्रिया करने वाले अथवा जल में गुलने वाले तत्व न हों | हम सभी को यह बात मालूम है कि प्राचीन काल में वायु प्रदूषण नहीं होता था और यदि हुआ भी तो नाम मात्र का |
आधुनिक विज्ञान में जल(Water in Mordern Time)
आज आधुनिक विज्ञान को देखने से पता चलता है कि दकार्गल में बताये गए पानी के गुणों जैसे ही आधुनिक विज्ञान भी बताता है| आधुनिक विज्ञान में जल के स्वाद की चर्चा इसी प्रकार से की गई है जैसा कि दकार्गल में। जल का स्वाद वर्षा जहाँ हो रही है वहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों और वायु में आज प्रदूषण के कारण ही जल का स्वाद अलग-अलग हो सकता है।
वाराहमिहिर(Varahmihir) और जल
वाराहमिहिर को ज्योतिष का पितामह कहा गया है| ज्योतिष में दकार्गल के विषय में वराहमिहिर ने विशेष बातें कहीं हैं| उनके हिसाब से वर्षा के जल एक ही स्वाद एक जैसा ही होता है परन्तु अलग-अलग धरती से मिलकर अथवा अलग-अलग प्रकार की धरती पर बरसकर जल का रंग और उसका स्वाद अलग-अलग हो जाता है।Red(ताम्र)रंग की धरती के जल का स्वाद कसैला, ताम्बे जैसी रंग की धरती हो तो उस स्थान का जल क्षारीय, पीले रंग (Yellow) की धरती का जल नमकीन और नीले रंग की धरती का जल मीठा होता है।
प्राचीनकाल में आधुनिक युग की तरह प्रदूषण नहीं होता था जिसके कारण जल में अशुद्धियों के मिलने का एक ही स्थान अथवा कारण था वह था धरती और इसी कारण इस सूक्ष्म कारण का अवलोकन उससे ही की जानी चाहिये थी। जल के स्वाद का वर्णन भी आधुनिक विज्ञान की तरह ही किया गया है और प्रैक्टिल रूप में बिना किसी लाग-लपेट के ही किया गया है।
धरती को देखकर जल का अनुमान
धरती के रंग और रूप को देखकर, उस धरती पर उगने वाली लताओं, पेड़ आदि को देखकर उस धरती के सतह के नीचे के जल के स्वाद का पता लगाया जा सकता था| दकार्गल में जल के अनुसन्धान के प्रक्रिया को बताने के साथ जल की जांच के तरीके भी बताये गए हैं| जिस धरती की सतह से जल प्राप्त करना है उस धरती की विशेषता को देखकर उसके सतह के नीचे से मिलने वाले जल के विषय में जाना जा सकता है |
धरती के नीचे जल की प्राप्ति के संकेत(Signs)
विभिन्न आचार्यों द्वारा विभिन्न स्थितियों, स्थानों को देखकर और Practical रूप से अनुभव कर सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों के अवलोकन से ही जल प्राप्ति के संकेतों (Signs) को बताया है।
- पेड़(Trees) पेड़ की जड़ें पानी को धरती से प्राप्त करती हैं तो उनकी जड़ों को देखकर पानी का अनुमान लगाया जा सकता है|
- विवर (बिल)-जानवरों के बिलों से, चूहे के बिल आदि से|
- पिपीलिका (चींटी) से|
- मण्डूक (मेंढक) के होने से|
- तृण (घास) वाली जमीन|
- शिला (पत्थर) के प्रकार|
जड़ में जाइलम (एक प्रकार का ऊतक) होता है जो पानी का संचालन करता है। जाइलम में भी पानी का परिवहन या संचालन जाइलम वाहिकाओं और जाइलम ट्रेकिड द्वारा होता है।
धरती नसें और नाड़ियाँ
धरती के अन्दर मनुष्य के शरीर की ही तरह नसें और नाड़ियो का जाल है और उनके अवलोकन से मनुष्य धरती के अन्दर जल के स्रोतों का पता लगा कर अपनी जान बचा सकता है| इससे धरती के अन्दर जल भण्डार की मात्रा(Quantity)की जानकारी भी मिल जाती है|
धरती के अन्दर कितनी गहराई में जल छिपा है?
धरती के नीचे कितनी गहरे में जल छिपा है इसके लिए उस समय में प्रचलित हाथ और किसी व्यक्ति की लम्बाई जैसे Instruments का सहारा लिया जाता था| ऋषि परम्परा में किसी चीज को प्राप्त करने के लिए अनुभव और प्रकृति में विभिन्न प्रकार के लक्षणों को देखकर किया जाता था|
दकार्गल ज्ञान से ही अगर आपको परीक्षा करनी हो और जल को धरती के अन्दर से निकालना हो तो वर्तमान काल के हिसाब से विभिन्न पैमानों से माप कर देखा जा सकता है।इसका कारण यह है कि प्राचीनकाल में पृथ्वी अधिक मात्रा में वनों से ढ़ंकी हुई थी। उस समय वर्षा भी खूब होती थी और धरती में जल उच्च स्तर पर था, साथ ही जल मशीनों के न होने से जल का दोहन सीमित मात्रा में होता था।
जल के स्तर को बनाये रखना
प्राचीनकाल में भले मशीनें न हों लेकिन कुएँ, तालाब आदि जल को धरती की कोख से प्राप्त करने के साधन होते थे और ये इनका धरती की कोख से सीधा जुड़ाव होता था जिससे कि ये धरती की कोख के जल के स्तर को बनाए रखने में सहायक होते थे।
जल के देवता
जल को कोई बर्बाद न करे इसलिए इसके देवतामय स्वरुप और सनातन और भारतीय ज्ञान परम्परा में जल जो कि पंचमहाभूतों में से एक है इसको देवस्वरूप माना गया है, इसलिए जलप्राप्ति के लिए यदि आप इस दकार्गल ज्ञान से जल प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिये वरुणदेव जो जल के अधिष्ठाता देवता हैं उनके पूजन व मुहूर्त का भी ध्यान रखना चाहिये।
दकार्गल में धरती के प्रकार
जल को धरती से ही प्राप्त करना है। जल प्राप्त करने से पहले धरती की विशेषता की पहचान की जाती है। धरती की विशेषता को जानना और भी ज्यादा जरूरी है क्योंकि धरती सभी जगहों पर एक जैसी नहीं है। समतल मैदान, पठार, दलदली, रेगिस्तान आदि धरती कई प्रकार की है।
जल प्राप्त करने के लिए 4 प्रकार के क्षेत्र
दकार्गल ज्ञान और जल प्राप्त करने के लिये धरती के 4 प्रकार के क्षेत्र बताये गए हैं
- जाबलदेश,
- अनूपदेश,
- मरुदेश,
- शिलादेश
जाबलदेश
वैदिक सभ्यता (Vedic Time) या प्राचीन समय (Ancient Time) में धरती का वह क्षेत्र जहाँ जल कम मात्रा में हो वह क्षेत्र जाबल क्षेत्र अथवा जाबल देश कहलाता है। जाबल क्षेत्र में जल का ज्ञान करने के लिए बड़े-बड़े वृक्षों के बारे में बताया गया है। जैसे-जामुन, अर्जुन, पलाश, बेल या श्रीफल आदि| चूँकि ये बड़े और घने पेड़ हैं और ये जड़ों से पानी अवशोषित करते हैं | इनकी जड़ों की दिशा को देखकर पानी के स्रोत का पता लगाया जा सकता है|
क्या जाबलदेश में Google Map था जो पानी का रास्ता बता देता था?
आज हम सभी कहीं न कहीं और कभी न कभी Google Map यूज़ करते हैं और प्राचीन भारत नेचुरल मैप यूज़ करता था | ये क्या विज्ञान नहीं है ? ऋषियों को मालूम था कौन सी शिरा या पेड़ की जड़ मिलेगी जहाँ पानी मिलेगा !
आपसे एक सवाल?
दोस्तों रेलगाड़ी से यात्रा के दौरान बहुत से वृक्ष-लता-पेड़-झाड़ी आदि मिलते हैं। उनको देखकर क्या आपने कभी इस प्रकार से जल होने की सम्भावना को सोचा है? नीचे कॉमेण्ट बॉक्स में जरूर बताएँ।
आपका जवाब हमको उत्साहित करता है|
अनूपदेश
धरती के जिस क्षेत्र में धरती में समाहित जल चाहे वर्षा से हो या अन्य किसी कारण से अधिक मात्रा में हो उस क्षेत्र को अनूपक्षेत्र या अनूपदेश के नाम से जाना जाता है। ऐसे क्षेत्र में स्निग्ध (चिकने) वृक्ष, लता, गुल्म, पुष्प के वृक्ष, कुश-काश, व तृण (घास) से युक्त होता है। अनूपदेश में जल कम गहराई पर सभी जगहों से प्राप्त हो जाता है।
अनूपदेश में पानी प्राप्त करने के संकेत
- जहाँ पर बिल के साथ साथ तिलक, आँवला, भिलावा, बेल, तेन्दु, अंकोल पिण्डार, शिरीष, अंजन, फालसा, अशोक, अतिबला आदि पेड़ हों वहाँ इनसे तीन हाथ उत्तर दिशा में साढ़े चार पुरुष नीचे जल होता है।
- यदि घास रहित क्षेत्र में कोई एक स्थान घास से भरा हो अथवा घास वाले क्षेत्र में कोई स्थान घास से खाली हो तो उस स्थान पर साढ़े चार पुरुष नीचे जल होता है।
- जहाँ काँटेदार पेड़ में एक बिना काँटे का हो अथवा बिना काँटे वाले पेड़ में एक काँटे वाला हो तो वहाँ उस पेड़ से तीन हाथ पश्चिम दिशा में तीन हाथ दूरी पर पश्चिम दिशा में एक तिहाई तीन पुरुष नीचे जल होता है।
- जहाँ पाँव से तीन बार मारने पर गम्भीर स्वर हो वहाँ साढ़े तीन पुरुष नीचे उत्तर शिरा का जल होता है।
- पेड़ की एक शाखा नीचे की ओर झुकी या पीली पड़ गई हो तो उस शाखा के नीचे तीन पुरुष खनन करने पर जल प्राप्त होता है।
मरुदेश
मरुदेश अथवा मरूस्थल क्षेत्र में जल की उपलब्धता बहुत ही कम होती है। मरूदेश में बालू की अधिकता होती है। और इस क्षेत्र में कांटेदार वृक्ष होते हैं।
मरुदेश में जलप्राप्ति के मैप
- मरुदेश या रेगिस्तान में खजूर आदि के वृक्ष बहुतायत में प्राप्त होते हैं| ऐसे जगहों में खजूर,ताड़ के वृक्ष से जल ज्ञान प्राप्त होता है।
- जिस जल रहित देश में दो शिर वाला खजूर का वृक्ष हो वहाँ उस वृक्ष से दो हाथ पश्चिम दिशा में तीन पुरुष नीचे जल होता है।
- ताड़ या नारियल के वृक्ष भी पाए जाते हैं अतः इन वृक्षों से जल का ज्ञान सम्भव होता है।
- यदि बिल से युक्त ताड़ या नारियल का पेड़ हो तो उस पेड़ से छः हाथ पश्चिम दिशा में चार पुरुष नीचे दक्षिण वाहिनी शिरा का जल होता है।
- मरुदेश में यदि पीलु का वृक्ष स्थित हो तथा उस वृक्ष से साढ़े चार हाथ पश्चिम दिशा में पाँच पुरुष नीचे उत्तर शिरा होती है।
- ऐसी जगहों पर 20 से 25 पुरुष नीचे तक जल पाया जा सकता है|
जैसे ऊँट की गर्दन होती है उसी प्रकार मरु धरती में नीची शिराएं होती हैं। जिन लक्षणों से मरुस्थल में जल ज्ञान कहा गया है उन लक्षणों से जाबल (स्वल्प जल वाले) देश में जल का ज्ञान नहीं करना चाहिए। पहले जामुन, बेंत आदि के द्वारा जल ज्ञान के समय जो पुरुष प्रमाण (गहराई के मापन हेतु) बतलाया गया है उसको द्विगुणित करके मरुदेश में ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी पचपन पुरुष नीचे जल ज्ञान की चर्चा मरुदेश के सन्दर्भ में प्राप्त होती है, अतः इसका तात्पर्य है कि मरुदेश में जल अत्यन्त नीचे स्थित होता है तथा उसकी मात्रा भी स्वल्प होती है।
शिलादेश
शिलादेश का तात्पर्य पथरीली धरती वाले क्षेत्र से है। शिलादेश में धरती का रंग,वर्ण अथवा शिला अथवा स्टोन के रंग के आधार पर जल का ज्ञान बतलाया जाता है।
शिलादेश में जलप्राप्ति
- शिलादेश का तात्पर्य पथरीली या पठारी धरती से है। ऐसी जगहों पर भी जल प्राप्त कर अपने जीवन की रक्षा की जा सकती है
- जहाँ पर एक पर्वत के ऊपर दूसरा पर्वत हो वहाँ पर तीन पुरुष नीचे जल होता है।
- इसी प्रकार पत्थर के कणों से युक्त काली, लाल या नीली मिट्टी की धरती पर कुश या मूंज उगा हो तो वहाँ पर बहुत ही मधुर जल का स्रोत होता है।
- वैदूर्य मणि के समान, मूंग या मेघ के समान काला, मकने वाले गूलर के फल के समान, फोड़ने से अंजन के समान पीला या काला पत्थर जहाँ हो वहाँ समीप में ही बहुत जल होता है।
- इसी प्रकार कबूतर, शहद, घृत या सोमलता के समान रंग वाला पत्थर जहाँ पर हो वहाँ पर कभी नष्ट नहीं होने वाला जल शीघ्र निकलता है।
- पत्थरों के वर्ण के अतिरिक्त बहुत से पत्थर विचित्र बिन्दुओं से युक्त होते हैं अथवा बहुत से सामान्य पत्थर भी स्फटिक या मोती आदि के समान होते हैं। उनके आधार पर भी जल का ज्ञान किया जा सकता है।
- ताम्रवर्ण के बिन्दुओं (धब्बों) से युक्त, विचित्रवर्ण के बिन्दुओं से युक्त, पीले रंग वाला, भस्म, ऊँट या गदहे के समान रंग वाला नीला, सूर्य या अग्नि के समान पत्थर जहाँ हो वहाँ पर जल नहीं होता है।
- चन्द्रकिरण, स्फटिक, मोती, सोना, इन्द्रनीलमणि, सिंगरफ, अंजन, उदयकालिक सूर्य किरण और हरिताल के समान रंग वाला पत्थर शुभ होता है, और वहाँ जल होता है।
यूट्यूब पर पानी से किसी मजबूत चीज की कटाई का तरीका प्राचीनकाल और वेदों से ही प्राप्त हुआ है उदाहरण के लिये वृहत्संहिता में शिलादेश में जल को प्राप्त करने के ज्ञान के साथ-साथ शिलाओं को विदीर्ण करने का उपाय भी बताया गया है। यह उपाय प्राचीन काल के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि तब मशीनें और एआई नहीं था।
जलज्ञान के लिए अन्य तरीके और संकेत
यदि जलरहित देश में बहुत जल वाले देश के चिह्न दिखाई दें तथा जहाँ पर दूब अधिक कोमल हों वहाँ एक पुरुष नीचे जल होता है। इन्द्रदन्ती,लक्ष्मणा आदि औषधियाँ हो वहाँ से दो हाथ दक्षिण दिशा में तीन पुरुष नीचे जल मिलता है।
वाष्प और धूप देखकर भी जल का पता
जिस स्थान से भाप या धुआँ, निकलता हुआ दिखाई दे वहाँ दो पुरुष नीचे बहुत जल बहने वाली शिरा जाननी चाहिए। इसी प्रकार जहाँ नीची, रेतदार, और पाँव रखने से शब्द करने वाली धरती हो वहाँ भी साढ़े चार या पाँच पुरुष नीचे जल का स्रोत जानना चाहिए।
जलशुद्धि
भूगर्भ से प्राप्त जल पूर्व के समय में कुंआ अथवा तालाब में संचित होता था तथा इसका उपयोग दैनिक कार्यों हेतु किया जाता था। कूंए ही मुख्य रूप से जल प्राप्ति के साधन होते थे। इनका जल विभिन्न कारणों से दूषित हो जाता था अथवा कुछ स्थानों पर जल का स्वाद अच्छा नहीं होता था। दूषित जल से रोगों की सम्भावना रहती थी। आचार्यों ने भारतीय शास्त्रों में इनके शुद्ध करने के लिए विभिन्न औषधियों का प्रयोग बताया है। यह औषधियाँ आज भी प्रयोग की जा सकती हैं। अञ्जन, मोथा, खश, राजकोशातक, आँवला, कतक का फल इन सभी का चूर्ण बनाकर कूंए में डालकर शुद्ध किया जा सकता है|
जल को साफ़ करने का तरीका
अञ्जन, मोथा, खश, राजकोशातक, आँवला, कतक का फल इन सभी का चूर्ण बनाकर कूंए में डालकर शुद्ध किया जा सकता है| इन औषधियों के प्रयोग से गन्दला, कडुआ, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्ध वाला जल निर्मल, मधुर, सुगन्धित और अनेक गुणों से युक्त हो जाता है। जल के बिना प्राणियों के जीवन की कल्पना भी असम्भव है। यह ज्ञान हमारे आचायोँ के सतत निरीक्षण, परिश्रम, व अलौकिक ज्ञान का फल है। वर्तमान समय में हमारे वैज्ञानिकों ने ऐसे यन्त्रो का निर्माण कर लिया है जिसके द्वारा भूजल का पता लगाया जा सकता है।
दकार्गल का आज उपयोग?
विज्ञान ने तरक्की कर ली है लेकिन आज भी सभी लोग आरो नहीं लगवा सकते हैं और बहुत से लोग तो पानी भी शुद्ध नहीं पी पाते हैं| साथ ही इन यन्त्रों के प्रयोग के लिए विशिष्ट व्यक्तियों व धन की भी आवश्यकता होगी। इसके उपरान्त भी भूगर्भ में स्थित इस जल का स्वाद, गन्ध आदि जान पाना सम्भव नहीं है। ऐसी परिस्थिति में दकार्गल का ज्ञान हम सभी के लिए अत्यन्त उपयोगी है।दकार्गल के शास्त्र विधि का प्रयोग करते समय हमें देश-काल व परिस्थिति का विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता होगी ऐसा मेरा मत है। क्योंकि यह ज्ञान सैकड़ों वर्ष पुराना है। उस समय जनसंख्या कम थी व जलदोहन की मात्रा भी सीमित थी। साथ ही अधिकांश भूभाग वनों से भरा हुआ था व वर्षा भी होती थी अतः जलस्तर उच्चतम रहा होगा। वर्तमान परिवेश के हिसाब से हमें भूजल की गहराई में भिन्नता प्राप्त होगी अतः गहराई के ज्ञान हेतु विवेक का प्रयोग करना चाहिए|